कोरोना ने देश और दुनिया में भारी तबाही मचाई है। लाखों लोगों को इस महामारी में जान गंवानी पड़ी है। कोरोना से बचाव के लिए दुनियाभर में वैक्सीन लगाई जा रही है। भारत में भी अब तक 54 करोड़ लोगों को कोरोना की वैक्सीन लगाई जा चुकी है। जिसमें 28 करोड़ पुरुष हैं, जबकि 25 करोड़ महिलाएं शामिल हैं। दोनों जेंडर के बीच वैक्सीन लगाने के अनुपात में 3 करोड़ का फासला है। 2011 के जनगणना के मुताबिक देश में प्रति 1000 पुरुषों के अनुपात में 940 महिलाएं हैं। लेकिन वैक्सीन लगाने का अनुपात देखा जाए तो प्रति 1000 पुरुषों में सिर्फ 867 महिलीओं को ही वैक्सीन लगाई गई है, यह देश के समग्र लिंगानुपात से काफी खराब है।
इन संख्याओं में सबसे बड़ी असमानता उत्तर प्रदेश में देखी जाती है, जहाँ पुरुषों और महिलाओं के बीच 50 लाख का अंतर है। वहीं बिहार में 20 लाख और हरियाणा तथा दिल्ली में 15 लाख वैक्सीन की दोनों जेंडरों के बीच असामनता है। ये संख्या महिलाओं की सुरक्षा के ऐतबार से काफी चिंताजनक है, क्योंकि वैज्ञानिकों और मेडिकल अधिकारियों ने COVID-19 के तीसरी लहर की चेतावनी दी है साथ ही सरकार को इसके लिए आगाह भी किया है। कई विशेषज्ञों ने तो वैक्सीनेशन प्रक्रिया में तेजी लाने की वकालत करते हुए सभी नागरिकों को वैक्सीन लगाए जाने की बात कही है।
अगर इसी अनुपात में महिलाओं का टीकाकरण किया जाता रहा तो यह उनकी सुरक्षा के साथ खिलवाड़ होगा साथ ही जीवन के अधिकार जैसे संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने जैसा साबित होगा।
पितृसत्तात्मक धारणाओं और नियमों की वजह से महिलाओं की अनदेखी
भारत में पितृसत्तात्मक परंपराओं, मूल्यों, नियमों और रूढ़िवादी मान्यताओं का एक लंबा इतिहास रहा है जिससे समाज में महिलाओं के साथ सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक तौर पर भेदभाव होता रहा है। इसके अलावा भारत के धार्मिक और जातीय सिस्टम में भी महिलाओं के साथ भेदभाव का लंबा इतिहास रहा है। यहां महिलाओं को घरेलू कार्यों तक सीमित रखा गया। आजादी के 75 वर्षों बाद भी समाज में उन्हें वह स्थान नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार हैं।
पिछले कुछ वर्षों में हुए विभिन्न शोधकार्यों से पता चला है कि भारत में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलती हैं। एक अध्ययन में सामने आया है कि महिलाओं को प्राइमरी हेल्थ सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना होता है। महिलाओं को होने वाली सामान्य सर्दी, जुकाम और बुखार को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि इन्हीं बीमारियों में पुरुषों को तत्काल अस्पताल ले जाकर उनका इलाज करवाया जाता है। मासिक धर्म के दौरान महिलाओं को अपवित्र मानने की परंपरा भी पुरानी रही है। उन्हें रसोईघर, पूजा घर, तथा पुरुषों के सामने आने तक की मनाही होती है। ताज्जुब की बात है कि जब महिलाओं को यही मासिक समस्याएं होती हैं तो कोई भी पुरुष उनसे विवाह करने को राजी नहीं होता है। क्योंकि मासिक धर्म में होने वाली परिशानियां सीधे तौर पर प्रजनन संबंधी समस्याएं पैदा करती हैं।
वहीं पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं को आर्थिक तौर पर कमजोर रखा गया है। दरअसल आर्थिक आजादी ही वह रास्ता है, जहां से महिलाएं खुद को पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं से आजाद रख सकती हैं। इसलिए पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने महिलाओं के पल्लू से घरेलू कार्यों को बांध दिया, जबकि बाहर के कार्य जैसे- नौकरी, राजनीति और व्यापार को पुरुषों के लिए बना दिया गया। कोरोना वैक्सीनेशन प्रक्रिया में भी यह एक बड़ा कारण है कि महिलाओं को घर के अंदर रहना है, इसलिए उन्हें वैक्सीन की जरूरत नहीं बल्कि पुरुष बाहर जाते हैं इसलिए उन्हें वैक्सीन की जरूरत ज्यादा है।
दूसरी ओर वैक्सीन को लेकर एक भ्रम फैलाया गया है कि वैक्सीन लेने के बाद महिलाओं की प्रजनन क्षमता प्रभावित होती है, यानी बच्चे पैदा करने में दिक्कतें आएंगी या फिर वह कभी मां नहीं बन पाएंगी। इस भ्रामक तथ्यों की वजह से बहुत सारी महिलाओं को वैक्सीन नहीं दिलवाई गई है। जबकि सरकार और विशेषज्ञों द्वारा बार-बार ये साफ किया जा चुका है कि वैक्सीन का प्रजनन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इसके अलावा प्रेगनेंट (गर्भवती) महिलाएं भी वैक्सीन लगवा सकती हैं। इससे उनकी पेट में पलने वाले बच्चे को कोई खतरा नहीं होगा।
गलत सूचना के साथ प्रणालीगत लैंगिक भेदभाव का संयोजन महिलाओं में धीमी टीकाकरण दर का मूल कारण है। महिलाओं में टीकाकरण के बेहतर अनुपात को प्राप्त करने के लिए सभी स्तरों पर एक व्यापक रणनीति बनाए जाने की आवश्यकता है।