मुस्लिम ब्रदरहुड यानी ‘इख़्वानुल मुस्लमीन’ यानी एमबी दुनिया में पॉलिटिकल इस्लाम यानी इस्लामी ख़िलाफ़त की स्थापना की कल्पना करने वाली विचारधारा है। इस पर सऊदी अरब और मिस्र समेत कई इस्लामी देशों में ही प्रतिबंध लगा हुआ है लेकिन फिर भी यह दुनिया के हर उस देश में कम या ज़्यादा उपस्थित है जहाँ मुसलमानों की तादाद को ‘साइज़ेबल’ कहा जाता है। अपनी स्थापना यानी 1928 के बाद से मुस्लिम ब्रदरहुड सिर्फ एक बार मिस्र की सत्ता पर वर्ष 2012 में बैठ पाया लेकिन एक ही साल के बाद एमबी के तत्कालीन राष्ट्रपति मुहम्मद मुरसी को गद्दी छोड़नी पड़ी। आज मुस्लिम ब्रदरहुड को तुर्की और क़तर से सबसे अधिक समर्थन मिलता है। जबकि मिस्र, सऊदी अरब, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात और सीरिया में इख़्वान पर प्रतिबंध ही नहीं बल्कि मुस्लिम ब्रदरहुड को आतंकवादी संगठन बताया गया है।
मुस्लिम ब्रदरहुड अलग-अलग नामों के साथ दुनिया के लगभग हर उस देश में मौजूद है जहाँ मुसलमानों की आबादी अच्छी है। मिस्र में प्रतिबंध के बाद से तुर्की मुस्लिम ब्रदरहुड की नई पनाह है। माना जाता है कि तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इर्दोगान की एकेपी पार्टी मुस्लिम ब्रदरहुड ही है। वह अकसर अपनी रैलियों में ‘रबा’ (Rabaa) का निशान बनाते हैं जो मुस्लिम ब्रदरहुड के चार उद्देश्यों को दर्शाता है।
हाथ की चार उंगलियों को दिखाकर ‘रबा’ का निशान बनाना ही दर्शाता है कि आप मुस्लिम ब्रदरहुड हो या उसके साथ हो। साल 2013 में जब मुहम्मद मुरसी की सरकार को मिस्र की जनता और सेना ने हटा दिया था तो भारत में मुरसी के समर्थन में कई प्रदर्शन आयोजित हुए। यह प्रदर्शन जमाते इस्लामी और इसकी छात्र इकाई स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इंडिया (SIO) ने आयोजित किए। इस दौरान जमात और एसआईओ के लोगों ने भी ‘रबा’ का निशान लहराया, जो स्पष्ट करता है कि जमाते इस्लामी भारत और एसआईओ मुस्लिम ब्रदरहुड को भारत में समर्थन देते हैं।
मुस्लिम ब्रदरहुड तुर्की में एकेपी (AKP), बहरीन में यह ‘अलमेनबार’ (Al-Menbar) के नाम से मौजूद है, ईरान में इस्लामिक (Iranian Call and Reform Organization), इराक़ में पूर्व उपराष्ट्रपति तारिक़ अल हाशमी (Tariq Al-Hashimi) की अध्यक्षता में यह इराक़ी इस्लामिक पार्टी के रूप में मौजूद है। इस्राइल में यह अलग अलग गुटों के रूप में अपने वास्तविक नाम के साथ मौजूद है, फिलस्तीन में एमबी उस समय तक मज़बूत रही जब तक मिस्र में मुहम्मद मुरसी की सरकार रही। हालांकि ग़ज़ा पट्टी में आज भी एमबी का प्रभाव है। अर्द्ध राजशाही जॉर्डन में मुस्लिम ब्रदरहुड काफ़ी मज़बूत है। जॉर्डन में पिछले साल 2020 में मुस्लिम ब्रदरहुड की राजनीतिक दल की मान्यता का नवीनीकरण नहीं किया गया लेकिन इससे पहले तक वह चुनाव में बड़ी जीत हासिल करती रही है। मिस्र से भागे लेकिन मुस्लिम ब्रदरहुड के सबसे बड़े धर्मगुरू यूसुफ़ अलक़रदावी (Yussuf al-Qaradawi) क़तर में रहते हैं। क़तर के पूर्व शासक हम्माद बिन ख़लीफ़ा अलसानी (Sheikh Hamad bin Khalifa al-Thani) ने मुस्लिम ब्रदरहुड को बहुत आर्थिक मदद की है। आज उनके बेटे और क़तर के शेख़ तमीम बिन हम्माद भी यह परम्परा निभा रहे हैं। इसके अलावा कुवैत, सऊदी अऱब, सीरिया, यमन और संयुक्त अरब अमीरात में यह मौजूद है। माना जाता है कि पाकिस्तान और बांग्लादेश की जमाते इस्लामी भी मुस्लिम ब्रदरहुड ही है।
सोशल मीडिया के ट्वीटर पर उपलब्ध आँकड़ों की तुलना करें तो मुस्लिम ब्रदरहुड यानी ‘इख़्वानुल मुस्लमीन’ के आधिकारिक हैंडल @ Ikhwanweb पर सबसे अधिक फॉलोवर मिस्र के हैं, जबकि मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड पर पाबंदी लगी हुई है। न्यूनतम डाटा के आधार पर मिस्र में इख़वान के 362 फॉलोवर हैं, बांग्लादेश के न्यूनतम 303 और कम से कम 151 फॉलोवर भारत के हैं। यह संख्या कम दिखाई दे सकती है लेकिन डाटा विज्ञान के हिसाब से कम से कम का अर्थ होता है कि इतने लोग तो गारंटी के साथ फॉलो कर रहे हैं लेकिन यह संख्या काफ़ी अधिक भी हो सकती है। भारत के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि न्यूनतम डाटा के आधार पर ही सही लेकिन इख़्वान के न्यूनाधिक फ़ॉलोवर भारत से हैं।
इतना ही नहीं कॉमन फॉलोवर के आधार पर विश्लेषण से पता चलता है कि इख़्वान को भारत से फॉलो करने वाले न्यूनतम 151 हैंडल में से 42 हैंडल जमाते इस्लामी भारत को भी फॉलो करते हैं। यह इख़्वान को फॉलो करने वाले कम से कम कुल भारतीय हैंडल का 27.81% होता है। इसी तरह जमाते इस्लामी के छात्र संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइज़ेशन ऑफ़ इंडिया यानी एसआईओ को फॉलो करने वाले कम से कम 34 हैंडल है जो इख़्वान को फॉलो करते हैं। यानी इस हिसाब से इख़वान यानी मुस्लिम ब्रदरहुड के कम से कम भारतीय फॉलोवर में से 22.51% हैंडल ऐसे हैं जो एसआईओ को भी फॉलो करते हैं और उसकी गतिविधियों को जानना चाहते हैं। यह इत्तेफ़ाक़ भी हो सकता है कि भारत के 4 हैंडल एक साथ इख़्वान और पॉपुलर फ्रंट ऑफ़ इंडिया को भी फॉलो करते हैं।
तथ्य यह भी है कि एसआईओ के सबसे अधिक फॉलोवर भारत में होना लाज़िमी है लेकिन दूसरे सबसे अधिक फॉलोवर पाकिस्तान और तीसरे सबसे अधिक फॉलोवर बांग्लादेश से हैं।
बांग्लादेश में इख़्वानुल मुस्लमीन के दूसरे सबसे अधिक फॉलोवर होने का स्पष्ट तथ्य यह है कि वहाँ मुस्लिम जनसंख्या तो बहुमत में है, साथ ही मुस्लिम ब्रदरहुड यानी इख़्वान के बांग्लादेश प्रतिनिधि के रूप में जमाते इस्लामी बांग्लादेश देश की मुख्यधारा की राजनीति में है। जमाते इस्लामी कई दशकों से बांग्लादेश में सत्ता में आने के लिए कट्टरता के सहारे बहुत कोशिश कर चुकी है, लेकिन कामयाब नहीं हो पाई है। फिर भी यह जगज़ाहिर है कि बांग्लादेश जमाते इस्लामी को मुस्लिम ब्रदरहुड ऑफ़ बांग्लादेश कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा। बांग्लादेश जमाते इस्लामी और इसकी छात्र इकाई बांग्लादेश छात्र शिबिर के दोनों आधिकारिक हैंडल भी इख़्वान को फॉलो करता है। यह जानना ज़रूरी है कि बांग्लादेश में हाल ही में दुर्गापूजा के दौरान हिन्दुओं के पांडाल को तोड़ने और हिंसा में जमाते इस्लामी बांग्लादेश का हाथ बताया गया।
न्यूज़ 18 ने 27 अक्तूबर 2021 को एक समाचार का प्रकाशन किया जिसमें कहा गया कि जमाते इस्लामी और मुस्लिम ब्रदरहुड ने मिलकर कश्मीर घाटी में मुस्लिम नौजवानों को भटकाने का काम किया। इन दोनों गुटों ने सूफ़ी मार्ग से हटाकर नौजवानों को कट्टर बनाने में भूमिका निभाई। ख़बर के लेखक मनोज गुप्ता ने कई चौंकाने वाली सूचनाएं दीं। ख़बर में कहा गया “जम्मू और कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी (JeI) का प्रभाव इस क्षेत्र में आतंकी वर्ग को सुगम बनाने में एक प्रमुख कारक रहा है। समाज और जीवन की अवधारणा के साथ-साथ जेईआई (जमात-ए-इस्लामी) द्वारा अपनाए गए हुकम चलाने का तरीका कश्मीर के लोगों से जुड़े सूफी मूल्यों के विपरीत है।“ ख़बर में दावा किया गया है कि घाटी में युवाओं को शरीअत के हिसाब से जीने के लिए जमात सीधे तौर पर मुस्लिम ब्रदरहुड से ‘प्रेरणा’ ले रही है। ख़ूफ़िया सूत्रो के आधार पर लिखी गई इस ख़बर में कहा गया “जेईआई (जमात-ए-इस्लामी) विशेषज्ञ नियमित रूप से तुर्की स्थित MB (मुस्लिम ब्रदरहुड) के प्रमुख सदस्यों को शामिल करते हैं, लोगों और सरकार की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों की भूमिका सहित विभिन्न मुद्दों पर उनकी सलाह और मार्गदर्शन प्राप्त करते हैं।”
अगर यह दावे सही हैं तो ट्वीटर के फॉलोवर के कॉमन पैटर्न को देखने से लगता है कि जमात-ए-इस्लामी और मुस्लिम ब्रदरहुड को फॉलो करने वाले लोग विचारधारा के स्तर पर समान हो सकते हैं। यह बात सिर्फ़ जमात-ए-इस्लामी ही नहीं उसके छात्र संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइज़ेशन (एसआईओ) के लिए भी मानी जा सकती है।
एक और प्रमुख समाचार वेबसाइट ‘इंडिया ट्रिब्यून’ ने पिछले महीने की 2 तारीख़ को एक ख़बर प्रकाशित की थी। इस ख़बर को इस पैटर्न को समझने में मदद मिलती है। स्वतंत्र शोध संगठन ‘डिसइन्फो लैब’ की एक ख़बर को आधार बनाकर लिखे गए इस समाचार में कहा गया “मुस्लिम ब्रदरहुड (एमबी) के आशीर्वाद के साथ कतर-तुर्की-पाकिस्तान (क्यूटीपीआई) गठजोड़ कट्टरपंथी इस्लामवादियों के लिए नया केंद्र बन रहा है। डिसइन्फोलैब की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि फर्जी खबरों और दो मीडिया हथियारों, अल जज़ीरा और टीआरटी वर्ल्ड से लैस एमबी (मुस्लिम ब्रदरहुड) ने नई दिल्ली के आर्थिक हितों को लक्षित करते हुए भारत के खिलाफ एक अभियान शुरू किया। ट्विटर पर एक हैशटैग #BoycottIndianProducts कुछ दिनों पहले लॉन्च किया गया था, और तब से चल रहा है। इस सांठगांठ ने असम की दुर्भाग्यपूर्ण घटना से इसे एक रंग देने की कोशिश की जो कि निंदनीय था। … ट्रिगर केवल बहाना था।” आपको बता दें कि असम में एक मुस्लिम बंगाली को पुलिस ने गोली मार दी थी जिसके बाद एक कैमरामेन उसके सीने पर कूद रहा था। यह वीडियो वायरल हो गया था और पूरी दुनिया में इस पर काफ़ी बहस हुई थी। इंडिया ट्रिब्यून इस ख़बर में आगे डिसइन्फ़ो लैब की रिपोर्ट से कहता है कि तुर्की एक तीर से कई निशाने लगा रहा है जिसमें उसे सऊदी अरब को भी मूल्यहीन बनाना है ताकि सुन्नी दुनिया की क़यादत उसके पास आ जाए। इसके आर्थिक पक्ष भी हैं। तभी तुर्की से बैठकर मुस्लिम ब्रदरहुड फ्रांस को भी टारगेट कर रहा है। दरअसल तुर्की हलाल व्यापार को लेकर प्रदर्शनी लगा रहा है और वह चाहता है कि सुन्नी मुसलमानों के बीच लोकप्रिय हलाल वस्तुओं का बाज़ार का केन्द्र तुर्की बन जाए। अभी मलेशिया इस धंधे की अगुवाई कर रहा है।
भारत की जमात-ए-इस्लामी ने 14 मार्च 2014 को एक तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी के हवाले से माँग की। इसमें सऊदी अरब से अपील की गई कि वह मुस्लिम ब्रदरहुड पर प्रतिबंध के बारे में पुनर्विचार करे।
जमात-ए-इस्लामी मिस्र के दिवंगत पूर्व राष्ट्रपति मुहम्मद मुरसी की जेल में मौत को हत्या मानते हैं। वह मुरसी को शहीद का दर्जा भी देते हैं। जेल में मुरसी की मौत की ख़बर आने के बाद जमात-ए-इस्लामी ने अपने सभी संगठनों के साथ मिलकर नई दिल्ली में मिस्र दूतावास के सामने ज़ोरदार प्रदर्शन भी किया था। जमात ने मुरसी की मृत्यु पर शोक सभाएं आयोजित कीं। जिसमें 22 जून 2019 की इस शोक सभा में तुर्की के क़रीबी और दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष ज़फ़रुल इस्लाम ख़ान, जमात-ए-इस्लामी हिन्द के तत्कालीन उपाध्यक्ष मुहम्मद ज़फ़र, स्टूडेंट्स इस्लामिक ऑर्गेनाइज़ेशन के तत्कालीन राष्ट्रीय सचिव फ़वाज़ शाहीन और नई दिल्ली से चलने वाले इस्लामी एकेडमी ट्रस्ट के सचिव डॉ. रिज़वान रफ़ीक़ी ने संबोधित करते हुए मिस्र की अलसीसी हुकूमत की निन्दा की। मुहम्मद मुरसी को शहीद बताया।
एक और फेसबुक पोस्ट से पता चलता है कि एसआईओ युवाओं से आह्वान कर रही है कि मुस्लिम ब्रदरहुड के नेता मुहम्मद मुरसी को नहीं भुलाया जाना चाहिए।
यह संयोग तो नहीं हो सकता कि जिस मुहम्मद मुरसी की मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार की बर्खास्तगी का मातम भारत की जमात-ए-इस्लामी मना रही थी, वैसे ही प्रदर्शन पाकिस्तान और बांग्लादेश की जमात-ए-इस्लामी में भी किए जा रहे थे।
(निम्नलिखित फोटो कॉपीराइट के अधीन है)
साल 2013 में मुस्लिम ब्रदरहुड के पहले निर्वाचित मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति मुहम्मद मुरसी ने दिल्ली की यात्रा की थी। दिल्ली स्थित मिस्री दूतावास में जमात-ए-इस्लामी के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने राष्ट्रपति के बुलावे पर मुलाक़ात की थी। यह ख़बर जमात की आधिकारिक वेबसाइट पर मौजूद भी है।
जब मुहम्मद मुरसी ने देश का संविधान बदल डाला था तो जमात-ए-इस्लामी अग्रणी संगठन था जिसने मुरसी को बधाई दी थी। सभी जानते हैं कि मुरसी ने मिस्र के धर्म निरपेक्ष स्वरूप का वहाबीकरण किया था।
आज भी जमात-ए-इस्लामी हिन्द मुहम्मद मुरसी को भूला नहीं है। वर्तमान अध्यक्ष सैयद सादतुल्लाह हुसैनी ने 2019 में एक फेसबुक पोस्ट के ज़रिये बताया कि मुरसी की याद में तमिलनाडु की मस्जिद में प्रार्थना आयोजित की गई है।
एक सहमति तुर्की और जमात-ए-इस्लामी के बीच और भी नज़र आती है। दुनिया के सबसे नामवर सूफ़ी विचारक फ़तहउल्लाह गुलेन की गिरफ़्तारी का जमात-ए-इस्लामी ने कभी विरोध नहीं किया। हाल ही में बहस में आए मानवाधिकार कार्यकर्ता उस्मान कवाला पर भी भारत की जमात-ए-इस्लामी ने चुप्पी साधे रखी। जबकि सब जानते हैं कि दुनिया के सबसे अधिक पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता तुर्की की जेलों में बंद हैं। जब मिस्र में अलसीसी की हुकूमत इख़्वान के लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डालती है, उस समय जो चिन्ता जमात-ए-इस्लामी हिन्द को होती है, वह चिन्ता गुलेन, कवाला या तुर्की में मानवाधिकार को लेकर नज़र नहीं आती। सोशल मीडिया के ट्रेंड से सेंटीमेंट का अंदाज़ा लगाया जा सकता है मगर जो वैचारिक कार्यप्रणाली में नज़र आता है, वह भी महत्वपूर्ण होता है। यह भी महत्वपूर्ण है कि वैश्विक मामलों में जमात-ए-इस्लामी हिन्द, पाक और बांग्लादेश में सहमति और तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब इर्दोगान के समर्थन का स्तर कितना गहरा है।