सोशल मीडिया पर उत्तराखंड के हल्द्वानी में हो रहे प्रदर्शन के वीडियो और फोटो वायरल हो रहे हैं। दरअसल हाई कोर्ट ने हल्द्वानी में कई बस्तियों को रेलवे की जमीन की बताकर उन्हें खाली कराने का आदेश दिया है। जिसके बाद से स्थानीय लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इस बीच इस मामले पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बयानबाजी शुरु हो गई है। गल्फ देशों से कई लोगों ने इस मामले पर पोस्ट किया है।
ट्विटर पर एक वेरीफाइड यूजर د.عـبدالله العـمـادي (@Abdulla_Alamadi) हैं। उन्होंने इस मामले पर ट्वीट किया- “एक बार फिर बीजेपी लौटती है और मुसलमानों को बुलडोजर की भाषा से प्रताड़ित करती है, मानवाधिकारों का उल्लंघन करती है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 4,000 से अधिक घरों को ध्वस्त करने का आदेश दिया, जहां मुसलमान रहते हैं और उन्हें बेघर छोड़ दिया, यह दावा करते हुए कि उन्होंने भारतीय रेलवे से संबंधित भूमि पर अतिक्रमण किया गया है!” (हिन्दी अनुवाद)
د.عـبدالله العـمـادي (@Abdulla_Alamadi) के ट्विटर बायो के मुताबिक वह लेखक और स्तंभकार हैं। उनके ट्विटर पर करीब 60 हजार फॉलोवर्स हैं।
फैक्ट चेकः
वायरल दावे का फैक्ट चेक करने के लिए DFRAC की टीम ने गूगल पर कुछ कीवर्ड्स सर्च किया। हमें मीडिया की कुछ रिपोर्ट्स मिली। नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट्स के मुताबिक- “उत्तराखंड के हल्द्वानी में हाईकोर्ट के आदेश पर रेलवे की ओर से अतिक्रमण हटाया जा रहा है। इसको लेकर स्थानीय लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। रेलवे की 78 एकड़ जमीन पर बने 4365 घरों को तोड़ा जाना है”
वहीं इस संदर्भ में “जनसत्ता” की एक रिपोर्ट मिली। इस रिपोर्ट में विवरण दिया गया है। जनसत्ता ने अपनी रिपोर्ट में स्थानीय सुत्रों के मुताबिक बताया है कि करीब 20 मस्जिद और 9 मंदिर अतिक्रमण की जद में हैं।
वहीं दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि- “रेलवे की जमीन पर गोपाल मंदिर, शिव मंदिर समेत पांच मंदिर भी बने हुए हैं। साथ ही 20 मस्जिदें भी हैं। इंदिरानगर व गफूरबस्ती में कई समुदाय के लोग निवासरत हैं। हालांकि ज्यादा आबादी एक समुदाय विशेष की है।”
निष्कर्षः
DFRAC के फैक्ट चेक से कई तथ्य सामने आ रहे हैं। पहला- स्थानीय लोगों को नोटिस सुप्रीम कोर्ट नहीं बल्कि हाई कोर्ट के आदेश पर दिया गया है। दूसरा- जहां अतिक्रमण हटाने की बात कही जा रही है, वहां मंदिर और मस्जिद दोनों हैं और यहां सभी समुदायों के लोग रहते हैं। तीसरा- यह फैसला राज्य सरकार का नहीं, बल्कि हाई कोर्ट का फैसला है। इसलिए सोशल मीडिया यूजर्स का दावा गलत है।