आप कहीं भी मीडिया की चर्चा कीजिए। अपने आप बात परम्परागत मीडिया से होते हुए सोशल मीडिया पर आ जाती है। हर किसी को अपनी बात हर इलेक्ट्रॉनिक तरीक़े से कहने की आज़ादी मिल गई है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा है मगर ‘अच्छे’ के दर्शन अभी बाक़ी हैं। देश में तेज़ी से लोकप्रिय हुआ सोशल मीडिया, ख़तरनाक तरीक़े से अनसोशल हो गया। आज यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से होते हुए राजनीतिक ध्रुवीकरण तक इस्तेमाल हो रहा है। अधिकांश लोग वैचारिक पार्टी में बंट गए हैं और फॉर्वर्ड, फेक न्यूज़, डिसइन्फॉर्मेशन के जाल में फंस गए हैं। बड़ी संख्या में नौजवान मिल जाएंगे जो जेल गए, मुक़दमे झेल रहे हैं और सोशल मीडिया की नज़ाकत को समझे बिना इसकी ध्रुवीकऱण नीयत को पकड़ नहीं पाए और शिकार हो गए।
इसके विपरीत एक मोटे अंदाज़ से यह पता चलता है कि जो नेता राजनीति को परम्परागत टूल से करते रहे हैं, उन्हें ऑनलाइन मीडिया भी रास ही आया है। नुक़सान तो आम जनता का हुआ है। वह अपनी बहस के दरम्यान किसी ट्रॉल को पहचान ही नहीं पा रहे और अनावश्यक टंकित बहस में वह माहौल को विषाक्त को बना ही रहे हैं, इसके बरअक्स उसी नेता के लिए लाभदायक साबित हो रहे हैं जिसने ऑनलाइन एक मज़बूत समर्थक वर्ग खड़ा कर लिया है। पूरी दुनिया में पाठक घट रहे हैं और छपने वाले अख़बारों की प्रसार संख्या घट रही है लेकिन भारत में सोशल मीडिया पर ज़बरदस्त बढ़ोतरी है। अख़बारों की प्रसार संख्या बढ़ रही है और साथ ही साथ हिन्दी समेत स्थानीय भाषाओं का डिजिटल स्पेस पर दबदबा बढ़ता जा रहा है। यह सभी परिस्थितियाँ हमें एक नाज़ुक मीडिया स्पेस में ले जा रहे हैं जिसके पास ध्रुवीकरण का सारा सामान मौजूद है और इसके नियंत्रण का कोई साधन नहीं।
सोशल मीडिया के मार्ग से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण भारत में एकल सम्प्रेषणीय तत्व नहीं है। इसका लाभार्थी राजनीतिक वर्ग है। सोशल मीडिया पर इस साम्प्रदायिक बहस और ट्रोलिंग ने भारत के संवैधानिक स्वरूप और वैश्विक सहिष्णु छवि को नुक़सान पहुँचाया है। धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमज़ोर करने में हिन्दुत्व और वहाबी विचारधारा ने कोई कसर नहीं छोड़ी और सोशल मीडिया के रूप में वह भारत की आवश्यकता और दुनिया में उसकी छवि को ही भुला बैठे। हिन्दू राष्ट्रवाद और ग्लोबल ख़िलाफ़त में तो भारत गौण है। जो इसे बचाने के लिए आगे आने का प्रयास करेगा उस पर ट्रोल छोड़ दिया जाएगा। यह वह विराट सत्य है जिसे भारत की सरकार के अलावा पूरी दुनिया जानती है।
यह जानना भी बहुत दिलचस्प है कि इस विषैले सोशल मीडिया को अपनी प्राथमिक बहस का मसाला मुख्यधारा के कथित मीडिया से प्राप्त होता है, जो बहस का नरेशन सेट करता है। लोगों का ध्यान खींचने के लिए मीडिया ने जो कहानी गढ़ी है, उसे कहने के लिए ध्रुवीकरण, सरलीकरण, गहनता, सनसनीखेज और निजीकरण यानी किसी की टोपी उछालना शामिल होता है।
इसके परिणाम में एक प्रतिक्रियावादी टोली सक्रिय हो जाती है। जो धर्म, सम्प्रदाय, विचारधारा, पहचान, इतिहास, हीरो और संस्कृति को बचाने के लिए सोशल मीडिया को ही व्यापक प्लेटफॉर्म मानते हैं। ट्वीटर हर रोज़ इसकी गवाही देता है जब मुख्य़ मीडिया से चली झूठी या सनसनीखेज़ ख़बर को सोशल मीडिया अपना हथियार बनाकर चलाता है, प्रतिक्रियावादी टोली इसका जवाब देने के लिए उतर जाती है। मुसलमान, दलित, जनजाति, महिलाओं, वामपंथियों और मध्यमार्गी यानी सेंट्रलिस्ट राजनीति करने वाले साथ आ जाते हैं। इस तरह जवाबदेह पार्टी तो बड़ी हो जाती है मगर इस दंगल में भारतीय समाज रोज़ाना नए नासूर झेलता है।
पिछले साल दिल्ली दंगों के बाद द प्रिंट के पत्रकार नीलांजन सरकार ने एक आलेख में लिखा कि अब कोई दंगा स्थानीय नहीं रहा बल्कि वह राष्ट्रीय हो गया है। उसे राष्ट्रीय सोशल मीडिया बना रहा है। नीलांजन ने संदर्भ के तौर पर कहाकि एक वायरल वीडियो में दिल्ली पुलिस का जवान कथित तौर पर मुसलमानों को परेशान करते हुए देखे गए। इससे इस भावना ने जन्म लिया कि पुलिस ने या तो मिलीभगत कर रखी है या वह दंगा नहीं रोकना चाहती। ज़ाहिर है यह राय सिर्फ़ दिल्ली के मुसलमानों या मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नहीं बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से हर देखने वाले की बनी होगी।
नीलाजंन अपनी चिंता जताते हुए लिखते हैं कि “भारत ने अतीत में बहुत सारी सांप्रदायिक हिंसा देखी है, लेकिन आज के सोशल मीडिया के समय में, ये आक्रमण केवल क्षेत्रीय या स्थानीय आबादी तक ही सीमित नहीं हैं, पूरे देश को साथ लेकर चलता है। अफवाहों, आक्षेप और घृणा का कोहरा जो एक स्थानीय सांप्रदायिक संघर्ष में भड़काने का काम करता है, तुरंत सोशल मीडिया के माध्यम से पूरे भारत में फैल गया।”
यह बहस जारी रहेगी कि मिसइन्फॉर्मेशन या फेक न्यूज़ ने साम्प्रदायिक (आगे चलकर राजनीतिक) ध्रुवीकरण कैसे फैला मगर यह तय है कि सोशल मीडिया को विचारों की आज़ादी का खुला मंच कहना जल्बाज़ी होगी।