जबकि भारत में ट्वीटर के नियमन को लेकर देश में बहस चल रही है और सरकार एवं ट्वीटर के बीच ठनी हुई है, एक बार फिर जनता के बीच यह बहस का मुद्दा बन गया है कि सोशल मीडिया से आपत्तिजनक, अश्लील या समाज के लिए घातक सामग्री को नियंत्रित करने का क्या तरीक़ा हो सकता है? एक वर्ग मानता है कि नियंत्रण की आवश्यकता ही क्या है, लेकिन भारत जैसे पेचीदा देश में जहाँ दुनिया की सबसे अधिक संस्कृतियाँ, बोली, भाषा, वेशभूषा, रिवाज़ वाले लोग रहते हैं, जहाँ सबसे अधिक तरह के मौसम और भूगोल हैं, वहाँ एकतरफ़ा स्वतंत्रता क्या घातक हो सकती है? फिर स्वतंत्रता को ट्रॉल बनने में देर नहीं लगती और आज़ादी के नाम पर उत्छृंखलता शुरू हो जाती है।
यह बहस जनता में नई हो सकती है लेकिन आपको जानना चाहिए कि ख़ुद सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म इस पर कवायद करते रहे हैं कि फ़ेक न्यूज़ या मिसइन्फॉर्मेशन को अपने प्लेटफॉर्म पर फैलने से कैसे रोका जाए। वर्ष 2018 में फेसबुक में हर महीने के पहले और तीसरे मंगलवार इस बात को लेकर बैठक होती रही है कि ग़लत सूचना या झूठी ख़बरों को हटाने का क्या तरीक़ा होना चाहिए। आख़िरकार फ़ेसबुक को स्थानीय स्तर पर (यानी हर देश के हिसाब से हर राजधानी में) ‘कंटेंट स्टैंडर्ड्स फॉरम’ बनाना पड़ा।
आईटी क़ानून यानी साइबर क़ानून की मौजूदगी के बावजूद जनता में जागरुकता की कमी है और वह पब्लिक प्लेटफॉर्म पर होते हुए भी उसे निजी समझकर वह भूल कर जाते हैं जिसकी वजह से समाज में तो कलह पैदा होती ही है, बल्कि वह ख़ुद भी परेशानी में फंस जाते हैं।
आज जबकि भारत सरकार और ट्वीटर के बीच ‘सामग्री’ और ‘कंटेंट स्टैंडर्ड्स फॉरम’ (लगभग वही नाम) को लेकर रस्साकशी चल रही है, यही काम फेसबुक ने जनता के व्यापक हित में पहले ही कर दिया, जो अब तक नाकाफ़ी लग रहा है। यहाँ बताना लाज़मी है कि बांग्लादेश में एक हिन्दू महिला के साथ मारपीट का वीडियो और दंगों में वहाँ की पुलिस की भूमिका का फोटो फेसबुक ने ख़ुद हटा दिया। यहाँ से फेसबुक की तरफ़ से अपलोडर को एक संदेश चला गया कि मिसइन्फॉर्मेशन डालने का जवाब यह है कि आपका पेज डिलीट हो सकता है और आपकी आईडी निरस्त हो सकती है।
अपनी वेबसाइट या सोशल मीडिया पर सामग्री की समीक्षा के लिए हर आज लगभग हर सोशल मीडिया कंपनी ने प्रोटोकॉल बना लिए हैं। सोशल मीडिया कंपनियां अपनी सामग्री को कैसे मॉडरेट करती हैं, इस बारे में जानना भी काफी रुचिकर हो गया है। कम्पनियों पर बोझ और जिम्मेदारी बढ़ी है लेकिन वह इसमें पूरी तरह सफल हो गई हों ऐसा बिल्कुल नहीं है। लोकतंत्र और इन सोशल मीडिया कम्पनियों के सामने यह चुनौती है कि लोगों की विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता पर चोट किए बिना कैसे इसे ज़हरीला होने से बचाया जा सकता है।
आपको याद होगा कि पिछले साल फरवरी में जब दिल्ली में दंगा हुआ तो दिल्ली विधानसभा ने फेसबुक की हेटस्पीच को छांटने की प्रक्रिया पर सवाल किए। इतना ही नहीं दिल्ली सरकार ने एक शांति और सद्भाव समिति बनाकर यह भी कहा कि वह इन आरोपों की जाँच करे कि फेसबुक कथित रूप से भड़काने में शामिल था क्या क्योंकि उसकी हेटस्पीच सामग्री पर नियंत्रण बेहतर नहीं था। फेसबुक ने इस पर कोई रिस्पॉन्स नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट में शरण ली। कोर्ट ने जाँच को तो रोक दिया लेकिन इससे यह सवाल समाप्त नहीं हो जाता कि दिल्ली दंगों के दौरान जो भी वीडियो या फोटो शेयर किए गए, उससे यदि समाज में उन्माद पैदा हुआ तो इस सामग्री का ज़िम्मेदार क्या अपलोडर अकेले को माना जाएगा? शायद नहीं।
एक और घटना से समझिए कि सोशल मीडिया किस तरह हेटस्पीच को रोकने में सफल नहीं हो पा रहे। पटना उच्च न्यायालय ने एक छात्र जावेद अख्तर को जमानत दे दी है, जिसपर आरोप है कि उसने सोशल मीडिया पर हिंदू देवताओं के बारे में आपत्तिजनक पोस्ट किए। न्यायमूर्ति अनिल कुमार सिन्हा की एकल-न्यायाधीश पीठ ने अख्तर को यह देखते हुए जमानत दी है कि वह 9 अगस्त, 2020 से हिरासत में है और उसका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है। एक छात्र होने के नाते जावेद को ज़मानत दी गई लेकिन वह नौ महीने से ज़्यादा जेल काट चुका है। इसे किसकी कमी कही जाए? जावेद जैसे नौजवानों की, सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की या मैकेनिज़्म की?
ताज़ा उदाहरण टेलीविज़न तारिका मुनमुन दत्ता का है। उन्होंने हाल ही में एक इंस्टाग्राम वीडियो में जातिसूचक शब्द बोला। उन पर पूरे देश में कुल छह प्राथमिकी दर्ज हुई। दत्ता के खिलाफ विभिन्न राज्यों में धारा 3(1)(यू) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत छह प्राथमिकी दर्ज की गईं, जिसे मिलाकर सुप्रीम कोर्ट ने एक कर दिया। बेशक मुनमुन दत्ता ने जावेद जैसी ही ग़लती की लेकिन क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जवाबदेह अधिकारी और मैकेनिज़्म तय कर लें तो क्या यह अन्तत: समाज के भले के लिए नहीं होगा?